मेरे घर के रास्ते में शमशान है,
बेदर्द रोज़ लेता किसी की जान है,
आदमी को मिट्टी में मिला देता है,
सबको उनकी औक़ात दिखा देता है…
कभी भीड़ तमाम कभी दो चार आदमी,
बता देता है किसकी कितनी जान-पहचान है,
लौट जाते हैं फिर किसी रोज़ लौट आने को,
भूलना ही पड़ता है सच साँस चलाने को…
लटका चेहरा, दर्द गहरा, वक़्त ठहरा सा,
दो चार दिन, कुछ और ग़म, हर कोहरा छट जाता है,
आज किसी अपने को, कल किसी के अपने को,
छोड़ना वहाँ आता है, फिर काम में लग जाता है…
शमशान की इस बात पर मगर हँसी आती है,
उसके ठीक सामने एक हस्पताल भी हैं,
वहाँ से जान आती है यहाँ से चली जाती है,
ज़माने भर की फ़िक्र, बीच का का सफ़र, गोल सिफ़र…
शमशान के बग़ल में मुर्दाघर भी हैं,
दोनों की आपस में अच्छी बनती हैं,
जो एक में जलती है दूसरे में दफ़नायी जाती है,
राख मिट्टी की फिर मिट्टी में मिलायी जाती है…
हस्पताल और दोनों के बीच मैं एक सड़क है,
और एक चाय की दुकान, एक स्कूल, एक मयखाना हैं,
तीनों में एक चीज़ बड़ी अच्छी हैं,
देख लगता हैं वहाँ, दुनियाँ में सिर्फ़ ये तीनों सच्ची हैं…
सड़क के दूसरी ओर, इबादत और पूजा घर हैं,
आदमी अन्दर कुछ और बाहर कुछ और होता है,
लूटता है किसी को तो कभी खुद लूट जाता है,
फिर सड़क के उस पार जा चैन की साँस सोता है…