~ किताबें…
किताबों की चादर किताबों का सिरहाना, किताबें ही ओढ़ के सो जाती हूँ,
किताबों की सी दिखती हूँ, किताबों का हुआ जो ज़िक्र फिर उनमें खो जाती हूँ…
कल सुबह एक, दोपहर में दो और रात को ढेढ़ ख़िताब खायी थी,
बीच में जो कहीं लगे भूख तो आधी किताब जेब में भी छुपायी थी…
कुछ किताबें मोटी हैं, कुछ पतली, कुछ लम्बी कुछ छोटी, ना एक खरी ना खोटी,
सब की सब बातूनी हैं, बहुत बोलती है, सब की सब कोई न कोई राज़ खोलती है…
किताबें ये सच में सिर्फ़ काग़ज़ के टुकड़े ही हैं ना, कहीं इनमें सच में तो जान नहीं,
कैसे मुमकिन है की ये सब कुछ जानती हैं, कहीं ये भी तो इंसान नहीं…
मैं भी तो एक किताब ही हूँ, चलता फिरता क़िस्सा हूँ जीती जागती एक कहानी हूँ,
ख़ुद को लिखती हूँ, ख़ुद सहफ़ा पलट ख़ुद को पड़ती, ख़ुद हर कहानी में ख़ुद से लड़ती हूँ…
अपनी इस किताब के चालीस सहफ़े चुकी हूँ पलट, कुछ पलटे आहिस्ता कुछ सरपट,
कुछ पलटते पलटते मुड़ गए, कुछ उधड़े कुछ सीए, चन्द इत्मीनान से जिये…
मैं और मेरी ये खुली किताब, और मेरी किताब में आखिरी हर्फ़ होगा इश्क़, तेरे नाम के साथ,
और जब लिखूंगी आखिरी सहफ़ा होगी आँखों में तस्वीर तेरी, हाथों में जाम के साथ…

Most welcome.
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Welcome🌷
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You are most welcome.
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Thank you…🙏🌷
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Thank you, Done 🙂
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बहुत शुक्रिया…
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Lovely…🌷
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वेसे कविता की भावाभिव्यक्ति सुन्दर है।
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ओड़ की जगह ओढ़ ओर ढेड़ की जगह ढेढ़ होता तो कविता बहुत ही ज्यादा सुन्दर बन जाती।
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