मैं हूँ चलती हुई ट्रेन की ऊपर वाली खाली बर्थ, मेरा पेसेंजर सामने वाली सीट से ले रहा है मज़ा, खाली बर्थ का होना ठीक वैसा है, जैसे ट्रैन के लम्बे सफर में सवार “एक अकेली जवान लड़की”
हर आता जाता उसे भूख भरी निगाहों से देख रहा है, काश मुझे मिल जाये यह सोच आँखें सेक रहा है, पड़ी टी-टी की नज़र तो उसके मुँह में पानी से भर गया, बेचने उसे ग्राहक की खोज में उसका चेहरा निखर गया...
सफर रात का था मैंने भी बगल से पड़दा खोला ज़रा, और अपनी हसीन बर्थ की बत्ती जलती ही रहने दी, पहली ही नज़र में उसका जादू चल गया, सामने वाले जनाब का पैर उसपर फिसल गया...
इधर बाथरूम का रुख करते दूसरे ने तो हद्द ही कर दी, खींच के दो चादर में से एक, बर्थ को लूटना शुरू किया, गया सिरहाना, फिर कम्बल और फिर आखिरी चादर भी, चुप चाप देख रहा था अब धैर्य ने मेरे टूटना शुरू किया...
असल तमाशा तो जब शुरू हुआ...
टी-टी साहब मौका देख पहला ग्राहक ले आये, दो-सो में दो स्टेशन का किये वादा और दिए उसपे चढ़ाये, और नहीं, खोला पड़दा हम चिल्लाये कहाँ-किधर हमारी है, बड़बड़ाये - तो हक़ काहे नहीं जताते खुद बैठ क्यों नहीं जाते...
बस क्या था - सब तरसती नज़रों को जैसे सांप सूंघ गया, अब हर आता-जाता हमें ऐसे घूर रहा था, जैसे उनकी गर्लफ्रेंड को हम ब्याह लिए हों, टी-टी तो ऐसे सड़े जैसे उनकी नौकरी हम खा लिए हों...
बहुत कठिन है भाई ट्रेन में खाली बर्थ का सफर करना, इज्जत सुरक्षित रहती नहीं और भाव लगा सो अलग, सब का सब अइसे उस पर अपना हक़ जताता हैं, जैसे बाप ज़मीन छोड़ दिया उनके नाम और बर्थ उनकी माता हैं...